साधु-संतों का अपमान: परमानंद गिरी महाराज की विवादास्पद टिप्पणी पर बवाल
हरिद्वार में हुई एक दंत कथा के दौरान युगपुरुष परमानंद गिरी महाराज ने साधु-संतों की तुलना कुत्तों से कर दी थी, जिसके बाद सोशल मीडिया पर उनका एक वीडियो तेजी से वायरल हुआ। इस विवादित कहा जाने वाला बयान, साधु-संतों की भावना को ठेस पहुंचाने वाला साबित हुआ, और इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए।
वायरल वीडियो और साधु-संतों की प्रतिक्रिया
वीडियो के वायरल होते ही, साधु-संतों ने अपनी नाराजगी व्यक्त करनी शुरू कर दी। कई साधु-संतों ने एकत्रित होकर बृहद विरोध प्रदर्शन किया। सोमवार की शाम को पंचायती निरंजनी अखाड़े के महंत सुरेशानंद पुरी जी महाराज ने खाकचौक पर परमानंद गिरी महाराज का पुतला जलाया। उन्होंने इस अवसर पर कहा:
- "साधु-संतों का अपमान सहन नहीं किया जाएगा।"
- "परमानंद गिरी महाराज को अपने बयान के लिए जवाब देना होगा।"
साथ ही, उन्होंने अभा अखाड़ा परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष और महामंत्री से मांग की कि परमानंद गिरी महाराज को पदमुक्त किया जाए और उन पर कार्रवाई की जाए।
विभिन्न दृष्टिकोण: संत समाज और राजनीति
इस अवसर पर अभा अखाड़ा परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रवींद्र पुरी जी महाराज ने भी परमानंद गिरी महाराज के बयानों पर खेद व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि:
- "उनका ऐसा बयान देना उचित नहीं था।"
- "मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और साध्वी ऋतंभरा को इस समय उन्हें मना करना चाहिए था, लेकिन वे भी हँसते रहे।"
यहां यह बात उठती है कि साधु-संतों के इस आक्रोश में राजनीतिक तत्वों का यदि कोई योगदान हुआ है तो उसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। समाज में संतों की एक ठोस छवि होती है, और ऐसे बयानों से उनके प्रति लोगों की धारणा में बदलाव आ सकता है।
क्या भविष्य में होगी कोई कार्रवाई?
संशय की स्थिति बनी हुई है कि क्या परमानंद गिरी महाराज के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाया जाएगा। उम्र के कारण स्वाभाविक रूप से सभ्यता और स्वीकार्यता का ध्यान रखते हुए अभा अखाड़ा परिषद की नीतियां अक्सर ढीली रहती हैं। इसके बावजूद, साधु-संतों के इस संघर्ष ने एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा किया है:
- क्या साधु-संतों की आवाज़ अक्सर अनसुनी रह जाती है?
- इस विवाद के पीछे की राजनीतिक डीलिंग पर ध्यान देने की आवश्यकता है?
निष्कर्ष
यह घटनाक्रम केवल परमानंद गिरी महाराज के विवादित बयान का मामला नहीं है, बल्कि यह धर्म, राजनीति और सामाजिक संरचना के बीच का संगठित संघर्ष भी है। साधु-संतों के प्रति सम्मान और आदर की प्रतीक के रूप में, उन्हें केवल धार्मिक या सांस्कृतिक दायित्वों में नहीं उलझाया जाना चाहिए, बल्कि उनके विचारों और अधिकारों का भी ठीक से ध्यान रखा जाना चाहिए। साधु-संत समाज ने इस मुद्दे से यह संकेत दिया है कि वे अपने अधिकारों के लिए सचेत और सजग हैं।
आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि अभा अखाड़ा परिषद इस मुद्दे पर क्या कार्रवाई करती है और क्या विवाद यहां रुकता है या आगे बढ़ता है। इसके साथ ही, यह समाज को यह भी सोचने पर मजबूर करेगा कि क्या हमारे समाज के स्थापित मानदंडों और मूल्यों को सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से परिभाषित किया जाना चाहिए।